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चाचा और भतीजे की लड़ाई के बीच पिस रहा है मुलायम का ‘समाजवाद’

पटना.घर का झगड़ा अगर घर के भीतर सुलझने की बजाए बाहर आ जाए तो जगहंसाई के अलावा कुछ नहीं हासिल होता है। बस फर्क इतना है कि जब आम आदमी के घर-परिवार में झगड़ा होता है इसकी चर्चा कम होती है, लेकिन जब यही झगड़ा किसी बड़ी हस्ती के वहां छिड़ता है तो सब लोग तमाशा देखते हैं। आपसी झगड़े के चलते न जाने कितने औद्योगिक घराने तबाह हो गए। कितने बड़े-बड़े नेताओं का रसूख और सियासत पारिवारिक झगड़े के चलते ‘अर्श से फर्श’ पर आ गया। अब यही बानगी मुलायम सिंह यादव के परिवार में ‘चाचा-भतीजे की जंग के रूप में देखने को मिल रही है। ऐसा लग रहा है कि मुलायम के सक्रिय राजनीति से दूरी बना लेने के बाद समाजवादी पार्टी के बुरे दिन खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव सपा मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ी और जीती थी। चुनाव जीतने के बाद पुत्र मोह में फंसकर मुलायम ने मुख्यमंत्री की कुर्सी अपने बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी और स्वयं विश्राम की मुद्रा में आ गए। यहीं से समाजवादी पार्टी के पतन का दौर शुरू हो गया था। मुलायम की कम होती सक्रियता के बीच सपा के दिग्गज नेता आजम खान और शिवपाल यादव अपने आप को पार्टी का अघोषित आका समझने और अखिलेश यादव को नियंत्रित करने लगे। करीब ढाई वर्ष तक अखिलेश इसी द्वंद्व में फंसे रहे कि पार्टी का असल नेता कौन है, सपा को साढ़े तीन मुख्यमंत्रियों वाली पार्टी की उपमा मिलने लगी, लेकिन यह भ्रम ज्यादा दिनों तक टिक नहीं सका।

कौन है सपा का सबसे बड़ा नेता इसी दुविधा में फंसी समाजवादी पार्टी का 2014 के लोकसभा चुनाव के समय फजीहत का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव तक थम नहीं सका। यहां तक की बीच-बीच में हुए उप-चुनावों में भी सपा को हार का सामना करना पड़ा। 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली हार का ठीकरा तो अखिलेश ने आजम और शिवपाल यादव पर फोड़ दिया, लेकिन 2017 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में जब सपा को करारी हार का सामना करना पड़ा तो अखिलेश इस हार की जिम्मेदारी लेने की बजाए बगले झांकने लगे। तब उन्हें अपने उस चाचा की याद आई, जिनको बेइज्जत करके उन्होंने पार्टी से निकाल दिया था। जबकि अखिलेश अच्छी तरह से जानते थे कि समाजवादी पार्टी को खड़ा करने में मुलायम के बाद सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका चाचा शिवपाल यादव ने ही निभाई थी। चाचा को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद अखिलेश की दुर्दशा कम होने की बजाए बढ़ती ही जा रही है।

उधर, चाचा शिवपाल के जाने के बाद कमजोर होती समाजवादी पार्टी में नई जान फूंकने, यूपी की सत्ता में वापसी से लेकर केन्द्र में समाजवादी पार्टी को मजबूती प्रदान करने तक के लिए अखिलेश ने परस्पर विरोधी विचारधारा वाली कांग्रेस और बसपा से भी हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया था, लेकिन सभी प्रयास और गठबंधन बेकार साबित हुए। लगता है इसके बाद अखिलेश यादव को चाचा शिवपाल की अहमियत समझ में आ गई होगी, इसीलिए वह शिवपाल यादव पर डोरे डाल रहे होंगे। उधर, अभी तक समाजवादी पार्टी में वापसी की राह देख रहे शिवपाल यादव सियासी हवा का रूख भांपकर अखिलेश पर तंज कसने लगे हैं। इसके लिए शिवपाल यादव ने भतीजे अखिलेश यादव के 18 नवंबर 2020 को दिए उस बयान का सहारा लिया जिसमें अखिलेश यादव ने सपा सरकार बनने पर चाचा शिवपाल सिंह यादव को कैबिनेट मंत्री बनाने और जसवंतनगर में उनके मुकाबले किसी को न उतारने की बात कहकर यादव परिवार में एका की कोशिश की थी। वैसे अखिलेश के इस ऑफर पर लोगों ने परिवार के बीच एका से अधिक इसके सियासी मायने ज्यादा निकाले थे। अखिलेश के प्रस्ताव को यादव परिवार के परंपरागत वोटों को सहेजने का जतन करार दिया गया था।

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