मोहम्मद रफी ने अपने घरवालों से छुपाई थी यह बात, इंतकाल के 6 महीने बाद ऐसे पता चला
24 दिसंबर को हिंदी सिनेमा के सर्वकालिक महान पार्श्वगायक मोहम्मद रफी का 96वां जन्मदिवस है। वे एक असाधारण गायक तो थे ही लेकिन एक नेकदिल, मददगार और संवेदनशील इंसान भी थे। वे अक्सर लोगों की कई मामलों में सहायता किया करते थे। उनके इस रूप के कई किस्से अक्सर सुनने व पढ़ने को मिलते हैं लेकिन एक किस्सा ऐसा है जिसे पढ़कर आप आश्चर्य से भर जाएंगे। यह किस्सा रफी साहब के बेटे शाहिद रफी ने एक इंटरव्यू में बयां किया था। पढ़ें यह किस्सा उन्हीं के शब्दों में।
– यह बात 1980 के साल की ही है जब वालिद का इंतकाल हुआ था। इस बात को करीब छह महीने ही बीते थे। हमारे घर के बाहर एक बाबा आए। वो कश्मीर से थे। हमें लगा कोई फकीर होगा। वह शख्स बाहर वॉचमैन से बहस करने लगा। बोला, मुझे साहब से मिलना है। वॉचमेन शेरसिंह हमारे मामू को भी साहब बोलता था क्योंकि मामू रफी साहब के सेक्रेटरी थे। वह ऑफिस के मोहनलाल अंकल के साथ मिलकर अब्बा का सारा काम देखते थे। मामू ने बहस की आवाज सुनी तो पूछा क्या बात है। बाबा बोला मुझे साहब से मिलना है। उन्होंने कहा कोई फकीर है क्या तो वह शख्स चिल्लाकर बोला मैं फकीर नहीं हूं। मुझे साहब से मिलना है।मामू ने उसको अंदर बुलाया। बैठाया। मैं भी वहीं था। अम्मी भी थी। बाबा को हॉल में बैठाया। पांच मिनट तक वह चुप रहा। सबकी शक्ल देखता रहा। मामू ने पूछा क्या बात है, बोल क्यों नहीं रहे हो। वह बोला, आपसे नहीं, साहब से बात करुंगा। मामू ने पूछा, कौन साहब। वह बोला, मोहम्मद रफी साहब। मामू हैरत में पड़ गए। ये कैसा आदमी है, इसको पता नहीं है। फिर पूछा, क्यों तुम्हें पता नहीं है। कम से कम चार, छह महीने हुए उनका इंतकाल हो गया है। वो कहां से मिलेंगे। बाबा झट से खड़ा हो गया और बोला तभी मैं सोचूं कि मेरे पैसे आना क्यों बंद हो गए।तब पूरे परिवार को पता चला कि अब्बा इस शख्स को सबकी नजरें छुपाकर पैसे भेजते थे। हमें आश्चर्य इसलिए भी हुआ क्योंकि मामू को यह बात पता नहीं थी, जबकि वे सारा कामकाज खुद संभालते थे। अम्मी तक को इस बात की कोई खबर नहीं थी। हमें यह तो पता था कि वो दान करते रहते हैं, पर नियमित रूप से पैसे भी भेजते हैं, यह पता नहीं था। हमें वह कहावत याद हो आई कि दायां हाथ पुण्य करे तो बांए हाथ को पता ना चले। इस वाकये के बाद से अब्बा के प्रति हमारे मन में सम्मान और बढ़ गया। वो सचमुच बिरले इंसान थे।घर पर ऐसे पिता थे रफी
एक पिता के तौर पर रफी कैसे थे, इस पर शाहिद रफी ने बताया कि यदि पुर्नजन्म होता है तो मैं चाहूंगा मुझे यही मां-बाप दोबारा मिलें। अब्बा कभी सोशलाइजिंग नहीं करते थे। स्टूडियो से काम खत्म होने पर सीधे घर आकर बच्चों के साथ खेलते थे। वे पूरे फैमिली मैन थे। दोस्तों के साथ कहीं नहीं जाते थे। अगर कहीं जाते भी तो बच्चों को लेकर ही जाते। लोनावला में हमें वीकेंड पर ले जाते थे। वहां बंगला था। वहीं पर घूमत-फिरते। ही वॉज एन एक्सीलेंट फादर।
स्टूडियो में तारीफ होती तो रफी देते थे यह जवाब
शाहिद ने बताया कि जब भी रिर्काडिंग स्टूडियो में गाना खत्म होने के बाद संगीतकार या साजिंदे उनकी गायिकी की तारीफ करते तो वो इशारे से ऊपर की तरफ देखकर बोलते कि यह ऊपरवाले की देन है। मेरा हुनर उसकी देन है। मैं कुछ नहीं हूं।
ऊपर वाले ने सांचा बनाया, रफी को ढाला और सांचा टूट गया
शाहिद ने अपने पिता रफी की परिभाषा करते हुए कहा कि जिस तरह सांचे में लाखों की तादाद में एक जैसी चीजें बनती हैं। उसी तरह समझें कि ऊपर वाले ने एक सांचा बनाया। उसमें रफी साहब को डालकर ढाला। फिर उसे तोड़ दिया। वह सांचा आज तक नहीं बना। उसके बाद दूसरा कोई रफी ही नहीं बना। वह दर्द, कशिश, माधुर्य, मेलोडी वह सब अलौकिक था।