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शहीद गैंद सिंह का 196 वाॅ शहादत दिवस मनाया गया

कोंडागांव. परलकोट विद्रोह में जिस एक आदिवासी को छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद का गौरव प्राप्त हुआ, उस शहीद गैंद सिंह का 196 वाॅ शहादत दिवस डॉ.अंबेडकर सेवा संस्था एवं एसटी, एससी, ओबीसी एंड माइनॉरिटी के सदस्यों द्वारा दीप प्रज्वलन व पुष्पांजली देकर तथा 2 मिनट का मौन धारण करने सहित रामप्रसाद कुपाल द्वारा शहीद गैंद सिंह की जीवनी पर रोशनी डालते हुए मनाया गया। आज उनके शहादत दिवस मनाए जाने के दौरान डॉ.अंबेडकर सेवा संस्था और एससी, एसटी, ओबीसी एंड माइनॉरिटी, सहित अखिल भारतीय हल्बा-हल्बी आदिवासी समाज के पदाधिकारियों व सदस्यों में प्रमुख रुप से संरक्षक तिलक पांडे, उपाध्यक्ष मुकेश मारकंडेय, कोषाध्यक्ष ओम प्रकाश नाग, सह सचिव रमेश पोयाम, पुष्करसिंह मंडावी, सलाहकार पी.पी.गोंड़ाने, इरशाद खान, मुख्य सलाहकार बुधसिंह नेताम, शकील सिद्धकी, सत्येंद्र भोयर, शीतल कोर्राम, बिरज नाग, उमेश प्रधान, रामप्रसाद कुपाल, एम.एल.चुरेंद्र, दिनेश यादव, इंद्रकुमार नाग, खोगेंद्र प्रसाद नाग आदि उपस्थित रहे।

इतिहास

इस दौरान उपस्थित जनों को शहीद गैंद सिंह की जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला एवं अंग्रेज मुक्त बस्तर परलकोट विद्रोह 1825 के इतिहास की जानकारी देते बताया गया कि 1774 के हलबा विद्रोह को मिलकर समाप्त करने के बाद मराठी दीवानों और अंग्रेजों ने बस्तर की भूमि पर अपने अधिकार के झंडे पूर्णतः गाड़ दिए और इस विजय का जश्न, वो वहाँ के भोले भाले आदिवासियों पर जुल्म, अत्याचार करके मनाने लगे। जंगल की लकड़ियों की असीमित कटाई, यहाँ के लोगों से काम लेकर उन्हीं पर अत्यधिक अनावश्यक कर वसूल किया जाने लगा।
इन जनजातियों को उनके घर, जंगल में हस्तक्षेप बिलकुल पसंद नहीं था, परंतु 1779 में डोंगर के राजा अजमेर सिंह की षड्यंत्र से की गई हत्या को देखकर हल्बा संगठन पूरी तरह से टूट चुका था, जिससे सालों तक डोंगर या आसपास के क्षत्रों में बगावत का बिगुल किसीने फुंकना उचित नहीं समझा। सन् 1820 में आवागमन में आसानी को देखते हुए, नव नियुक्त कप्तान पेबे ने परलकोट को अपना गढ़ चुना, उस समय वहां के राजा महिपाल देव थे, जो अजमेर सिंह के वंश के होने के बावजूद अंग्रेजों के समर्थक थे। परलकोट में मुख्यतः अबूझमाड़ी जनजाति थी, उन पर हो रहे अत्याचार उन्हें बर्दाश्त नहीं थे, अंततः 1824 में गेंद सिंह ने सारे अबूझमाड़ियों का नेतृत्व करते हुए अंग्रेज मुक्त बस्तर का आह्वाहन किया, जिसे पारलकोट विद्रोह के नाम से जाना गया, जिसका मूल उद्देश्य बस्तर को बाहरी लोगों से मुक्त कराना था। परलकोट जमींदारी के अंदर 165 गांव थे, व परलकोट जमींदारी का मुख्यालय था। कोतरी नदी के तट पर बसा परलकोट, महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के पास का एक वनवासी गांव है, यहां तीन नदियों का संगम है। परलकोट की जमींदारी बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्र में आती है। अबूझमाड़ दो शब्दों से मिलकर बना है, अबूझ मतलब जिसे समझा न जा सके और माड़ का गोंडी में अर्थ है पर्वत। पर्वतों और घने जंगलों के सहारे ही एक साल तक अंग्रेजों को छकाया गया, जिसे अंग्रेज समझ नहीं पाए। अंग्रेजी बंदूकों के सामने आदिवासियों का जंगल एक मजबूत हथियार बना। हजारों की संख्या में वनवासी धनुष बाण और भालों से अंग्रेजी अधिकारियों और मराठा कर्मचारियों पर घात लगाकर आक्रमण करने लगे। पुरुषों के साथ महिलाओं की भी इस विद्रोह में भागीदार थी, शत्रु जहां दिखता उसको वहीं मौत के घाट उतार दिया जाता। घोटुल में इनकी सभा होती, जहां विद्रोह की रणनीतियां बनाई जाती थी। अबुझमाड़िया पांच-पांच सौ की संख्या में गुट बनाकर निकलते थे। कुछ का नेतृत्व महिलाएं करती कुछ का पुरूष। और गेंद सिंह योजनाबद्ध तरीके से उनका नेतृत्व करते रहे। विद्रोह इतना बड़ा हो चुका था कि छत्तीसगढ़ के ब्रिटिश अधीक्षक एग्न्यू को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। सारे अत्याचारों, हथियारों की कमी के बावजूद अबूझमाड़ी गेंद सिंह ने सिर झुकाना उचित नहीं समझा, एग्न्यू ने चंद्रपुर से बड़ी सेना बुलवाई और 10 जनवरी 1825 को परलकोट को चारों ओर से घेर लिया। गेंद सिंह गिरफ्तार हो गए और उनकी गिरफ्तारी से आंदोलन थम गया। गिरफ्तारी के 10 दिन बाद ही 20 जनवरी 1825 को परलकोट के महल के सामने ही गैंद सिंह को फाँसी दे दी गई, बस्तर को शुद्ध किये जाने का सपना लिये वह फाँसी पर चढ़ गए और इस तरह छत्तीसगढ़ के इतिहास में गैंद सिंह प्रथम शहीद के रूप में अमर हो गए।

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