‘ऐसो रास रचो वृंदावन, बज रही पायल की झंकार…’ पर झूमे भक्त
रायपुर। जीव और ब्रह्म का मिलना ही महारास है। सांसें भी भगवान को स्मरण करते हुए चलें तो यही महारास है। उक्त संदेश राजधानी के पुरानी बस्ती के गोपाल मंदिर में चल रही भागवत कथा सप्ताह ज्ञान यज्ञ के 6वें दिन संतश्री टीकमाचार्य के शिष्य महंत गोपालशरण देवाचार्य ने दिया।
कथा में भगवान श्रीकृष्ण की महारासलीला का सुंदर वर्णन किया। कथा में बताया कि एक बार कामदेव ने श्रीकृष्ण से इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने की शर्त रखी। इस पर कामदेव के अंहकार को नष्ट करने के लिए भगवान ने गोपियों के साथ निष्काम भावना से महारासलीला की। शरद पूर्णिमा पर भगवान कृष्ण महारास रचाना आरम्भ करते हैं।
गोपिकाओं के अनुराग को देखते हुए भगवान कृष्ण ने चन्द्र को महारास का संकेत दिया। चन्द्र ने भगवान कृष्ण का संकेत समझते ही अपनी शीतल रश्मियों से प्रकृति को आच्छादित कर दिया। उन्हीं किरणों ने भगवान कृष्ण के चेहरे पर सुंदर रोली की तरह लालिमा भर दी। फिर उनके अनन्य जन्मों के प्यासे बड़े-बड़े योगी, मुनि, महर्षि और अन्य भक्त गोपिकाओं के रूप में कृष्ण लीला रूपी महारास में समाहित हो गए।
कृष्ण की मोहिनी वंशी की धुन सुनकर अपने अपने कर्मो में लीन सभी गोपियां अपना घर-बार छोड़कर भागती हुईं आ पहुंची। कृष्ण और गोपिकाओं का अद्भुत प्रेम देख कर चंद्र ने अपनी सोममय किरणों से अमृत वर्षा आरंभ कर दी, जिसमे भीगकर यही गोपिकाएं अमरता को प्राप्त हुईं और भगवान कृष्ण के अमर प्रेम की भागीदार बनीं।
गोपाल मंदिर के 30वें वार्षिकोत्सव के दौरान कथा व्यास ने बुधवार को बताया कि जीव और ब्रह्म के मिलने को ही महारास कहते हैं। प्रभु की प्रत्येक लीला रास है। हमारे अंदर प्रतिक्षण रास हो रहा है, सांसें चल रही है तो रास भी चल रही है, यही रास महारास है, इसके द्वारा रस स्वरूप परमात्मा को नचाने के लिए एवं स्वयं नाचने के लिए प्रस्तुत करना पड़ेगा, उसके लिए ब्रज की गोपी होना पड़ेगा।
शरद ऋतु में रासलीला के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने जब गोपियों में भी भगवान के सान्निध्य पर अधिकार होने का घमंड पाया, तो भगवान वहां से अंतर्ध्यान हो गए। इस पर गोपियों को अपनी भूल का अहसास हुआ। इसके बाद भगवान गोपियों पर दया करते हुए फिर से वहां प्रगट हुए और उनके साथ काम भावना से रहित महारास लीला की। ‘ऐसो रास रचो वृंदावन, बज रही पायल की झंकार…’ भजन पर भक्त झूम उठे।
जब कामदेव ने यह देखा तो दूसरों के मन को मथने वाले कामदेव के हृदय से अहंकार नष्ट हो गया। श्रीकृष्ण एवं गोपियो के महारास की रात्रि में मानो चंद्रमा अपनी सुधबुध खोकर अपलक उस दिव्यतम माधुर्य रस की समाधि में ध्यानमग्न हो गया और चन्द्र की गति रुकने से महारास की रात्रिकालीन अवधि छह माह की हो गई। कान्हा की बांसुरी की ध्वनि से भोलेबाबा की समाधि भी खुल गई और गोपी का रूप धरकर कान्हा के संग महारास में नृत्य करने के लिए दौड़े आए और श्रीगोपेश्वर महादेव बन बैठे।