छत्तीसगढ़

कुंवारी माता के गांव लालपुर में एक शताब्दी से नहीं हो रहा होलिका दहन

रायपुर। राजधानी के ह्दय स्थल जयस्तंभ चौक से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित लालपुर गांव कुंवारी देवी माता, के नाम से प्रसिद्ध है। ग्रामीणों में ऐसी मान्यता है कि देवी मां की शादी नहीं हुई थी, कुंवारी माता के रूप में इनकी पूजा की जाती है। होलिका दहन के दिन कुंवारी माता की विशेष आरती करके गांव की खुशहाली की प्रार्थना की जाती है।
ऐसी मान्यता है कि एक शताब्दी पूर्व होलिका दहन के बाद गांव में महामारी फैल गई थी। ग्रामीणों ने देवी मां से मन्नत मांगी थी, जिससे ग्रामीणों को राहत मिली। इसके बाद से गांव में होलिका दहन करना बंद कर दिया गया। गांव के बुजुर्गों का कहना है कि होलिका दहन के प्रति ऐसा भय छाया है कि गांव का कोई भी व्यक्ति होलिका दहन करने के पक्ष में नहीं है। आसपास के तीन-चार किलोमीटर क्षेत्र में भी लोग दहन नहीं करते।
होलिका दहन से आती है मुसीबत

ग्रामीण बताते हैं कि उनके बुजुर्गों से सुना है कि होलिका दहन करने से गांव पर मुसीबत आ सकती है। पहले के जमाने में किसानों की फसल को नुकसान होता था, आगजनी जैसी घटनाएं होती थीं, महामारी का प्रकोप होता था। इससे बचने के लिए कुंवारी माता बिझवारिन देवी से प्रार्थना करके गांव की खुशहाली की कामना करते थे। यह परंपरा आज भी गांव में निभाई जा रही है।
कुंवारीडीह के नाम से प्रसिद्ध
80 साल के बुजुर्ग हटोई साहू बताते हैं कि हमारे गांव को कुंवारीडीह कहा जाता है। गांव की देवी बिझवारिन के नाम पर ही कुंवारीडीह पड़ा। वे बचपन से देख रहे हैं कि गांव में होलिका दहन नहीं हुआ। ऐसा देवी को सम्मान देने के लिए किया जाता है। होलिका दहन पर देवी की पूजा करने गांव के लोग पहुंचते हैं।
बचपन से दहन होते नहीं देखा
55 वर्षीय लखन साहू बताते हैं कि उन्होंने अपने पिता से सुना था कि होलिका दहन करने से गांव पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। उन्होंने कभी होलिका दहन होते नहीं देखा। यहां तक कि गांव के लोग दूसरे इलाकों में होलिका दहन देखने भी नहीं जाते। देवी मां की पूजा करके गांव में धूमधाम से रंगों की होली खेली जाती है।
बुजुर्गों की राह पर चल रहे युवा
युवा मनीराम साहू बताते हैं कि गांव के युवाओं को इस संबंध में कुछ नहीं पता। बुजुर्गों की बात को मानते हुए कोई भी युवा होलिका दहन की कोशिश भी नहीं करता।
सबसे पहले मानते हैं देवी का आभार
बालीराम धीवर बताते हैं कि किसी के घर में शादी हो, बच्चा हो, यहां तक कि बछड़ा-बछड़ी जन्मा हो तो भी देवी मां का आभार मानते हैं। गौरी-गौरा की पूजा मंदिर से ही शुरू होती है।
आम दिनों में कुंवारियां करतीं है पूजा
मंदिर में पूजा बच्चियों के हाथों से ही संपन्न कराई जाती है। नवरात्रि जैसे पर्वों पर बड़े बुजुर्ग पूजा में सहयोग करते हैं।

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