हैहयवंशी राजा मोरध्वज को खारुन नदी में मिली थी महामाया देवी की प्रतिमा
रायपुर। ऐतिहासिक बूढ़ा तालाब से चंद कदमों की दूरी पर पुरानी बस्ती में महामाया देवी का मंदिर संपूर्ण छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि हैहयवंशी राजा मोरध्वज को माता ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा था कि वे खारुन नदी से प्रतिमा निकालकर अपने सिर पर रखकर चलें और जहां रख देंगे वहीं प्रतिमा को प्रतिष्ठापित करवाएं। इसके पश्चात राजा खारुन नदी तट पर पहुंचे जहां नदी में तैरती हुई प्रतिमा को निकलवाया, जो सांपों से लिपटी हुई थी।
राजा ने प्रतिमा को सिर पर उठाया और चलने लगे। पुरानी बस्ती के जंगल तक पहुंचकर वे थक गए और प्रतिमा को एक पत्थर के चबूतरे पर रख दिया। माना जाता है कि इसके बाद काफी प्रयास करने पर भी प्रतिमा टस से मस नहीं हुई। राजा ने वहीं पर मंदिर बनवाया। प्रतिमा जैसी रखी हुई थी, आज भी वैसी ही यानि मुख्य द्वार से थोड़ी तिरछी दिखाई देती है।
स्तंभ 8वीं शताब्दी के बने
मंदिर के पुजारी पंडित मनोज शुक्ला के अनुसार राजा मोरध्वज द्वारा प्रतिष्ठापित मंदिर का जीर्णोद्धार कालांतर में 17वीं-18वीं शताब्दी में नागपुर के मराठा शासकों ने करवाया। इस मंदिर के ठीक सामने परिसर में ही मां समलेश्वरी की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। मंदिर का गर्भगृह, द्वार, तोरण, मंडल के मध्य के छह स्तंभ एक सीध में हैं, दीवारों पर नागगृह चित्रित है, पुरातत्व विभाग के अनुमान के अनुसार मंदिर के स्त्भ आठवीं-नौवीं शताब्दी पूर्व के है।
चरणों को छूती है सूर्य की किरणें
सूर्योदय पर सूर्य की किरणें मां समलेश्वरी देवी के चरण छूती है और सूर्यास्त पर मां महामाया देवी के चरणों तक किरणें पहुंचती है। मुख्य द्वार पर प्रवेश करते ही अगल-बगल मां के रक्षक काल भैरव और बटुकनाथ भैरव की प्रतिमा स्थापित है।
चकमक पत्थर की रगड़ से जलाते हैं ज्योति
मंदिर की परंपरा के अनुसार सैकड़ों साल से चकमक पत्थर को रगड़ने से निकलने वाली चिंगारी से ही नवरात्रि की महाज्योति प्रज्ज्वलित की जाती है। माचिस का इस्तेमाल नहीं किया जाता। महाज्योति से ही अग्नि लेकर हजारों ज्योति भक्तों की मनोकामना ज्योति प्रज्ज्वलित करते हैं।