रायपुर के प्रसिद्ध शीतला मंदिर का कोई आकार नहीं, 200 साल से पत्थर रूप में पूजी जा रहीं
रायपुर। पुरानी बस्ती के प्रसिद्ध महामाया देवी मंदिर से कुछ ही कदम पहले मां शीतला का 200 साल से अधिक पुराना शीतला मंदिर है। प्राय: हर मंदिर में देवी प्रतिमा का कोई न कोई आकार, स्वरूप होता है लेकिन शीतला माता का कोई रूप नहीं है, बल्कि माता की पूजा पत्थर के पिंड के रूप में की जाती है। ऐसी मान्यता है कि यह पत्थर किसी ने लाकर नहीं रखा, धरती से ही प्रकट हुआ।
माता ने एक महिला को स्वप्न में दर्शन देकर उसी जगह पर ही स्थापित करने का आदेश दिया। राजरानी श्रीमाली नाम की महिला ने उस पत्थर के चारों ओर छोटा सा मंदिर बनवाया। आज भी गर्भगृह उसी स्वरूप में है, बाद में मंदिर के सामने सिंह की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई जो मुख्य द्वार पर है। मंदिर में प्रवेश से पहले सिंह को प्रणाम करके भक्त भीतर पहुंचते हैं।
कुंड के पानी का घर में छिड़काव
मंदिर के पुजारी नीरज सैनी के अनुसार विविध तरह की बीमारियां खत्म होने की कामना को लेकर भक्त दूर दूर से मंदिर आते हैं। इस साल भी कोरोना महामारी से बचाने और बीमारी खत्म होने की कामना को लेकर मंदिर में महाज्योति प्रज्ज्वलित की गई है।
पत्थर रूप में माता की पूजा जैसी 200 साल पहले होती थी, आज भी वैसी ही की जा रही है। पिंड के बीच में छोटा सा कुंड है। इस कुंड का पानी भक्त अपने घर ले जाकर छिड़कते हैं, ताकि बीमारी का प्रवेश न हो। प्रतिमा का कोई स्वरूप नहीं होने के बावजूद यहां भक्तों की रेला उमड़ता है। इस बार लॉकडाउन के चलते मंदिर को बंद रखा गया है।
माता को गरम नहीं, ठंडा भोग
मंदिर की खासियत है कि भक्त अपने हाथों से माता को भोग अर्पित करते हैं, इसमें पुजारी का कोई दखल नहीं होता। शीतला माता ही एकमात्र ऐसी देवी है, जिसके गर्भगृह तक भक्त पहुंचकर अपने हाथों से माता को ठंडा भोजन का भोग लगाते हैं। गरम मिठाई, भोजन का भोग नहीं लगता।
इसी कारण माता को शीतलता देने वाली कहा जाता है। माता को लगाया जाने वाला भोग बाजार से नहीं खरीदा जाता बल्कि महिलाएं अपने घरों में एक दिन पहले से ही भोजन तैयार कर लेती हैं और ठंडा (बासी) भोजन ही भोग के रूप में अर्पित करती हैं, भोग लगाने के बाद परिवार के लोग भी दिनभर ठंडा भोजन ही ग्रहण करते हैं।