छत्तीसगढ़

सनातन हिन्दू धर्म और आदिवासी ….

सनातन हिन्दू धर्म और आदिवासी (ST/SC/0BC)

फरसगांव। पत्रिका लुक ( राजमन कश्यप )
अर्थ—— सनातन का अर्थ होता है पुरातन या अनादि काल से चला आ रहा और अनंत काल तक चलने वाला और आदिवासी का अर्थ आदिकाल से निवास करने वाला इससे स्पष्ट है जो आदि काल से वास कर रहा है वही पुरातन है वही अनादि काल से चला आ रहा है।आदिवासी ही सनातनी हिन्दू है।सनातनी ही आदिवासी है।
पहचान—हिन्दू धर्म की पहचान है *शिखा और सूत्र* अर्थात् चोटी और जनेऊ(व्रत बंध)आदिवासी समाज में भी मूर चूंदी/कुपार रखने की मान्यता है। गांव के गायता फेरमा को अनिवार्यतः कुपार रखना होता है।हमारे होश संभालने तक कई बुजुर्गों की चाणक्य शैली की चोटी रखते देखा हैं।व्रत बंध के रूप में सभी देव कार्यों के समय पाड़ा नूल(महरा जाति के व्यक्ति द्वारा दिया गया धागा) गले में पहना जाता है।इसे सभी वडडे सिरहा और करसाड़ में देवकार्य (पेन सेवा) लगे सभी लोग पहनते हैं। और इस प्रकार सभी जातियां देव कार्यों में बराबर भागीदारी करती हैं।
जातियाँ—— कई जातियाँ धाकड़, राऊत, हल्बा, भतरा, गोंड, मुंडा स्वयं को हिन्दू मानती हैं।फिर कुछ लोगों के बहकावे में आकर आदिवासी हिन्दू नहीं है  कह रहे हैं। जब पूर्व में हिन्दू थे तो अब क्यों नहीं?और कुछ आदिवासी हिन्दू ही थे आधे हिन्दू क्यों नहीं? *धाकड़ और राज गोंड* जनेऊ पहनते हैं स्वयं को ठाकुर लिखते हैं। जो कि हिन्दुत्व की पहचान है। *राऊत* स्वयं को भगवान कृष्ण के वंशज यदुवंशी  मानते हैं। गौपालन इनका मुख्य व्यवसाय रहा है। *हल्बा* स्वयं कृष्ण के भाई हलधर (बलराम) के वंशज मानते हैं। *कलार* स्वयं को भगवान सहस्त्रार्जुन के वंशज मानते हैं जो हिंदू पौरौणिक पुरूष हैं। *लोहार* स्वयं को भगवान विश्वकर्मा का वंशज मानते हैं। ऐसी कई मान्यताएं हमको हिंदुत्व से जोड़ती हैं।
देवी देवता—–बहुत से हिन्दू और आदिवासी देवी देवताओं के नामों के अर्थ एक ही है।
आदिवासियों के बुढ़ादेव हिन्दूओं के आदि देव महादेव हैं इसमें कोई संशय नही है।
दंतेवाड़ा क्षेत्र के संदर्भ में कुछ जानकारी-
पदामी/जाटो के देव बारह भुजा-नाम से स्पष्ट है बारह भुजा वाले हैं। पुराण में भगवान कार्तिकेय को ही छः सिर और बारह भुजा वाला कहा गया है अभी पदाम परिवार सम्मेलन में देव बैठाया गया तो उनका कथन था मैं महादेव बेटा हूं।
लेकामी के भूमगादी–— भूमगादी शब्द का शब्दार्थ विश्वनाथ  है उसेण्डी देव ही हिन्दूओं के विश्वनाथ शिव हैं।
अटामी के उर्राल तादो-— उर्राल का अर्थ काला है।काला का अर्थ हिन्दूओं का कृष्ण और इस देव का पहचान भी बांसुरी है। जो इस देव के करसाड़ में बजाया जाता है।
बारसा कुटुंब का कामाराज देव—–इस देव की सवारी नंदी बैल है स्थानीय बोली में नंदयाल कोंदा कहते हैं।
भोगाम के भोगामी आदि काल से माई दंतेश्वरी के ध्वज (भैरमलाट) वाहक  है।इनको लाटउरा कहते हैं।फागुन मंडई में माई जी की डोली का नगर भ्रमण कराया जाता है तो यही लाटउरा ध्वज घुमाते हैं।पहले समय में पूरी तरह नंगे होकर ध्वज घुमाते थे।
माड़वी का जहड़ी डोकरी जिसका अर्थ समझने से चण्डी समझ आता है।और मान्यता भी है इस देवी के पास कुँवारे लोग नही जाते।इसी रूप में तुले डोकरी को भी समझा जा सकता है।
रिश्ते नाते–—- रिश्तों के नाम भी देखें तो बहुत से रिश्ते एक से हैं।।   जैसे—--हिन्दी गोंडी/हल्बी, बाबा(पिता) बाबो,बाबा , दादा दादो, दादा, मामा मामा, बुआ बुबू आदि
नाम-—-आदिवासी भाईयों के नाम सप्ताह के सात दिन का आधार आयतू  आयताराम सोमाराम सोमारू मंगलराम मंगलू बुधराम बुधरू लखमूराम लखमा सुकारू सुकराम सन्नू आदि जुड़वा बच्चों के नाम रामा लखु रखे जाते हैं जो राम लखन का अपभ्रंश है। इसी तरह हिन्दी महीनों के आधार पर चैतराम चैतू बैसाखू जेठू सावन भदरू कार्तिक दीपावली वाले माह में पैदा होने वालों के दिवाड़ दियारू  फगनूराम फगुवाराम आदि नाम रखे जाते हैं।हिन्दूओं के इष्ट राम का नाम अधिकांश जनजातीय नामों के साथ जोड़ा जाता है। ऐसे ही आदिवासी बहनों के नाम सप्ताह के सात दिन के आधार पर सोमारी सोमली मंगली बुधरी लखमी सुकारी सन्नी आदि नाम हिन्दी महीनों के आधार बनाकर चैते चैती दियार दियारी फगनी आदि नाम रखे जाते हैं।जुड़वा बहनों के नाम रामे लखे रखे जाते हैं।हमारे कुछ बुद्धिजीवी कहते हैं हिन्दुओं की देवी दुर्गा हमारे पूर्वज राजा महिषासुर को मारी है।जो अपने पूर्वज राजा को मारे उसका नाम अपने परिवार में लेना भी नहीं चाहेगा यहाँ तो गोंड रानी दुर्गावती का नाम हिन्दू देवी के नाम पर रखा गया और बड़े गर्व और सम्मान के साथ उनका नाम लिया जाता है।
पर्व त्यौहार—– होली=फाग तिहार- फागुन मंडई-
उसी समय माह में मनाया जाता है ।
अक्षय तृतीया=पंडूम—- इस पर्व तक नये फल आदि नही खाते इसी दिन देव पितर में भोग लगा कर नये फल फूल ग्रहण करते हैं ।हिन्दूओं में इसी दिन से कृषि कार्य करते हैं ।हम लोगों में थोड़े विलंब से कृषि कार्य करते हैं इसलिए बीज ले जाने के लिए विज्जा पंडूम पुनः मनाते हैं ।
हरियाली अमावस्या—-आमूस हरेली-* श्रावणी अमावस्या को मानते हैं।हिन्दू और आदिवासी दोनों एक ही तरीके से औषधीय पौधों को खेत खलिहान,गोठान और घरों में लगाते हैं और अच्छी फसल और स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं ।
दशहरा —-दसरा—बस्तर का दशहरा विश्व प्रसिद्ध है और इस पर्व का संबंध रावण वध से नही महिषासुर मर्दिनी दुर्गा से है।शक्तिपूजा,शस्त्रपूजा यहाँ के राजा बहुत समय से करते आ रहे हैं। पूरे क्षेत्र के देवी देवता को दसरा में आमंत्रण दिया जाता है।सारे आदिवासी देवता दसरा में भागीदारी करते हैं।यदि इस समय कोई सिरहा‌ को देव बैठायें तो देवी भी नहीं आता कहते हैं देव दसरा गया है। दशहरा हिन्दुओं का त्यौहार और जाते हैं आदिवासी देवी देवता तो आदिवासी हिंदू क्यों नहीं?
*दीपावली (राज दिवाड़/राज दियारी)*=दीपावली को स्थानीय बोली में राज दिवाड़/राज दियारी बोलते हैं। राजा दिवाड़/राज दियारी के बाद गांव गांव में दिवाड़,दियारी मनाते हैं।मनाने के तरीके और समय में कुछ अंतर हो पर नये अन्न को घर ले आने की खुशी में मनाते हैं अन्न की पूजा मां के रूप में की जाती है दियारी के पूर्व जो रस्म होता *चाउरधोनी* कहते हैं जिसमें नये अन्न की खिचड़ी बना कर कुल देवता पितृ देवता को अर्पण करते हैं। और हिन्दू अन्न को अन्नपूर्णा मां लक्ष्मी के रूप में पूजते हैं।हम बचपन से ही पढ़ते आ रहे हैं दीपावली हिन्दूओं का सबसे बड़ा त्यौहार है और उसी दीपावली को आधार बनाकर दिवाड़ दियारी मनाने वाले आदिवासी हिन्दू क्यों नहीं❓
अभिवादन—–राम राम* का अभिवादन सनातन काल से आदिवासीयों में प्रचलित है।
पायलाग—– शब्द भी हिन्दी का ही है।सगा समाज में खाना खाने के पूर्व लंदा आदि पेय पीने पूर्व पायलाग कहा जाता है। जिसका सीधा अर्थ चरण स्पर्श है।
जोहार—–जोहार का अर्थ वंदना है। भगवान राम वनवास जा रहे थे निषादराज ने जब गंगा पार कराया तब   का एक प्रसंग आता है जहां कोल किरात लोग भगवान से मिलते हैं और जोहार करते हैं। उसका वर्णन इस प्रकार है—-वनवासी पत्तों के दोने बनाकर उनमें कंद, मूल, फल भरकर ऐसे चले जैसे रंक स्वर्ण भण्डार लूटने चले हों और लुटाने वाले रघुवीर हों। सब लोग राम को जोहार करके अपनी लायी हुई भेंट उनके सामने रखकर अत्यन्त अनुराग से श्रीराम को देख रहे हैं। यहाँ भी जोहार का अर्थ राम की अभ्यर्थना ही है-
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे।
वनवासी कोल-किरात उन्हें बार-बार प्रणाम करते हुए हाथ जोड़कर विनययुक्त वचन कहते हैं-
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी।
वनवासी कहते हैं कि हे नाथ! हे प्रभु!! हम आपके चरणों के दर्शन पाकर सनाथ हो गए हैं। हे कोशलराज! हमारे भाग्य से ही आपका यहाँ शुभ आगमन हुआ है ।
*टोटका/खटला—– ग्रहदोष प्रेतबाधा आदि के लिए एक जैसे ही कर्म काण्ड किया जाता है।अंतर केवल यह ब्राह्मण संस्कृत सूत्रों का पाठ करता है।वेडे स्थानीय बोली गोंडी/हल्बी आदि का।इसके बाद होम किया जाता है जिसमें बारह बानी लकड़ी(कटया) बारह बानी फूल (पूंगा) और अन्यान्य वन औषधि धूप आदि आग में डाल कर होम किया जाता है। होम हवन किनकी परम्परा है? हिन्दुओं की। और हिन्दुओं की रीति आदिवासी करता है क्यों?क्योंकि आदिवासी ही मूलतः सनातनी हिन्दू है।
संस्कार-—- मुख्यतः आदिवासियों जन्म संस्कार विवाह संस्कार मृत्यु संस्कार दिखाई देते हैं।राऊत महरा कलार समाजों लड़की के किशोरी होने से बरवा भी होता है।
जन्म संस्कार-—(जातकर्म व छठी)-* इसे गोंडी में कुंडा एहतानद कहते हैं हल्बी में कहा पीना कहते हैं।इसके बाद छठी होता है।जो छः दिन में होना होता है।किंतु सुविधा अनुसार हम विलंब से करते हैं।रिवाज में अंतर है किंतु काम एक ही होता है।
विवाह संस्कार—— यह भी मुख्यतः एक जैसा होता है लड़के के माता पिता  सगा में लड़की देख कर महला जाते हैं।हिंदुओं में सगाई करते हैं।जबकि आदिवासी हिंदु दोनों में सगोत्री(एक तर में) विवाह निषेध है।विवाह में फेरे तो सभी समाजों में होता है चाहे जैसा भी हो क्लॉक वाइज फेरा को देव भंवर एंटी क्लॉक फेरा को बैला भंवर बोलते हैं।  गोंडी में जूड़ मिरानद फेरे के ही संदर्भ में है।
अंतिम संस्कार—– अंतिम संस्कार भी सामन्यतः चिता में दाह क्रिया से ही सम्पन्न होता है। विशेष वेडे सिरहा आदि को समाधि दी जाती है ।वैसे ही हिन्दू धर्म में संयासीयों को समाधि दी जाती है, और अन्य जातियों में दोनों ही विधान से अंतिम संस्कार होता है जो सुविधा जनक हो फिर तीज नहानी  दाशगात्र पगड़ी रस्म आदि होता है। प्रमुख रस्म हिन्दूओं में अस्थि विसर्जन होता है।गोंडीं में बूला ओड़तानाद दो या तीन दिन मे होता है ।जिसका शब्दार्थ अस्थि विसर्जन है ।अंतर यह है कि हिन्दू तीर्थों नदियों में ले जाकर अस्थि विसर्जन करता है ।गोंड जल को शमशान ले जाकर बूला ओड़तानाद क्रिया करते हैं। इसकी कारण क्रिया का सरलीकरण या संक्षिप्तिकरण हो सकता है क्योंकि हमारा समाज जंगलों में रहा है जहाँ मूलभूल सुविधाओं का अभाव रहा वहां से नदी आदि जल स्त्रोतों में जाना सुविधा जनक नही रहा हो। —–यह समानताएं अतिअल्प और क्षेत्र विशेष की हैं इस तरह से आदिवासी और हिन्दू जीवन पद्धति का अध्ययन किया जाये तो वृहद साहित्य बन सकता है ।और इसकी आवश्यकता भी है। पूर्व काल में या आज भी स्वार्थी तत्वों द्वारा समाज में ऐसी मान्यताएं गढ़ी गई हैं या मानी जा रही हैं।(जैसे-जात-पात,वर्णभेद,शिक्षा से वंचित रखना,देव कार्य से  दूर रखना आदि)उन्हे स्व विवेक से उखाड़ फेंकना है। लकीर का फकीर नही बनना है। समाज को एकजुट संगठित बनाना है ।

यह लेख किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है बल्कि एक दूसरे की भावनाओ को समझना हैं।।

🙏🙏🙏जय आदि सनातनी🙏🙏🙏


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