नहीं रहे चिपको आंदोलन को धार देने वाले पर्यावरण प्रेमी सुंदरलाल बहुगुणा, पूरा जीवन किया लोगों को जागरुक
नई दिल्ली । देश के मशहूर पर्यावरण प्रेमी सुंदरलाल बहुगुणा अब हमारे बीच नहीं हैं। उनका एम्स में कोरोना का इलाज चल रहा था। लेकिन चिपको आंदोलन के जरिए वो हमेशा ही याद रखे जाएंगे। उन्होंने पेड़ो को सुरक्षा प्रदान करने के मकसद से शुरू इस आंदोलन को जनआंदोलन में बदल दिया था। उनके ही आह्वान पर उत्तराखंड में स्थानीय लोग पेड़ों को काटने से रोकने के लिए उनके साथ चिपक कर खड़े हो गए थे। उन्होंने देश ही नहीं बल्कि इस धरती पर मौजूद समस्त वनों के संरक्षण के लिए लोगों को प्रेरित किया था। चिपको आंदोलन की ही बात करें तो इसकी गूंज भारत से निकलकर विदेशों में भी सुनाई पड़ी थी।
सुंदरलाल बहुगुणा का नदियों, वनों व प्रकृति से बेहद गहरा लगाव था। वो पारिस्थितिकी को सबसे अधिक फायदे का सौदा मानते थे। वह इस बात के भी पक्षधर थे कि उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं को लगाया जाए। हालांकि वो इस पहाड़ी राज्य में टिहरी जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। इसके विरोध में उन्होंने आंदोलन भी शुरू किया था। पर्यावरण को बचाने के लिए उन्होंने जंगलों को सरंक्षित करने पर जोर दिया। उन्होंने नारा दिया ‘धार ऐंच डाला, बिजली बणावा खाला-खाला।’ इसका अर्थ था कि ऊंचाई वाले क्षेत्रों में अधिक से अधिक पेड़ लगाए जाएं और प्रदेश के निचले इलाकों में छोटी छोटी परियोजना लगाकर बिजली की मांग को पूरा किया जाए।
गढ़वाल में 9 जनवरी 1927 को जन्मे बहुगुणा के पूर्वज अपने नाम के पीछे बंदोपाध्याय लगाते थे। उनके पूर्वज वर्षों पहले बंगाल से गढ़वाल आ गए थे। वो केवल एक पर्यावरणविद ही नहीं थे बल्कि समाज सुधारक भी थे। उन्होंने छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाई। इसके अलवा उन्होंने 1965-70 के बीच उत्तराखंड में उन्होंने शराब के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया। बेहद कम उम्र में ही उन्होंने सामाजिक कार्यों में रूचि लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने भारत की आजादी से पहले कोलोनियल रूल के खिलाफ विरोध भी जताया था और आंदोलन भी किया था। वो महात्मा गांधी से काफी प्रेरित थे। इसलिए ही वो उनके आदर्शों का पालन करते थे और उनके बताए रास्ते पर चलते थे।
बहुगुणा जहां रहते थे वहीं पर उन्होंने एक आश्रम बनाया था। गांधी से प्रेरणा लेते हुए ही वो उन्होंने उत्तराखंड में ही करीब 4700 किमी की यात्रा पैदल की थी। इस दौरान उन्होंने उन जगहों पर अपना ध्यान केंद्रित किया जो बड़े बड़े प्रोजेक्ट की वजह से खत्म या नष्ट हो गई थी। उन्होंने इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की और चेतावनी भी दी कि इससे इस क्षेत्र का पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ जाएगा।
26 मार्च 1974 में उन्होंने चिपको आंदोलन शुरू किया था। पहाड़ों की हरियाली को बचाने के लिए उन्होंने 1981-83 के दौरान समस्त पर्वतीय क्षेत्र का पैदल ही दौरा किया। इस दौरान वो गांव-गांव गए और लोगों को पर्यावरण के लिए प्रेरित किया। टिहरी बांध के खिलाफ उन्होंने 45 दिनों तक अनशन किया था। ये अनशन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के आश्वासन के बाद ही खत्म हुआ था। इतना ही नहीं उन्होंने इस प्रोजेक्ट के खिलाफ 74 दिनों की दिल्ली के राजघाट तक पैदल यात्रा की थी। इसके बाद उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने खुद इस प्रोजेक्ट पर ध्यान देने की बात कही थी। टिहरी बांध के खिलाफ उन्होंने कानूनी जंग तक लड़ी थी। कोर्ट के आदेश के बाद जब टिहरी का काम शुरू हुआ तब भी उन्होंने इसका जबरदस्त विरोध किया था। इसके फलस्वरूप उन्हें अप्रैल 2001 में गिरफ्तार कर लिया गया था।