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गया में कफन बनाने वालों को पलभर फुर्सत नहीं; 24 घंटे काम, रोज 50 हजार कफन बना रहे, फरवरी के मुकाबले तीन गुना

गया. कोरोना की बेरहम बीमारी ने अब तक हजारों जानें ले ली हैं। गंगा में तैर रही लाशें इसकी क्रूरता की कहानी कह रही हैं। सरकार और प्रशासन मौतों के आंकड़े छिपाने में लगी हैं, लेकिन अब तो कफन भी इन मौतों की सच्चाई बताने लगे हैं। बिहार के गया में चादर-गमछे बनाने वाले बुनकर अब पूरी तरह कफन तैयार करने में लग गए हैं। वजह है, अचानक से इसकी डिमांड में आई तेजी। फरवरी-मार्च माह में यहां से हर दिन 15-20 हजार पीस कफन की सप्लाई होती थी, जो अब बढ़कर 40-50 हजार तक हो गई है।

भास्कर रिपोर्टर ने कफन बनाने में लगे पटवाटोली का जायजा लिया और देखा कि जब रोजगार खत्म हो रहे हैं, उस दौर में अब यह एक काम है, जिसमें लगे कामगारों को दिन-रात एक पल की फुर्सत नहीं है।

गमछा-चादर के लिए मशहूर, अब दिन-रात कफन की सिलाई
दोपहर के करीब 12 बजे हम पहुंचे हैं मानपुर के पटवा टोली। यह वही पटवाटोली है जो न केवल गमछा, चादर व कफन बल्कि हर साल बड़ी तादाद में आईआईटीयन की फसल तैयार कर देश को देता है। ऐसे तो पटवाटोली के बुनकरों का मुख्य पेशा सूती गमछे और चादर तैयार करना है। इनमें से केवल छह कारोबारी ऐसे हैं, जो गमछे के साथ पूरे साल कफन भी तैयार करते हैं। इनमें कुछ बड़े कारोबारी हैं, तो कुछ छोटे। बड़े कारोबारी लूम मशीन से कफन तैयार करते हैं, तो छोटे कारोबारी हाथ मशीन से।

पटवाटोली में हमें मिले कफन कारोबारी द्वारिका प्रसाद। वे बड़े कारोबारी हैं। कहते हैं- अभी सिर्फ उनके पास हर दिन 15-20 हजार कफन तैयार करने का आर्डर है। यह तेजी अप्रैल माह से आई है। इसके पहले फरवरी-मार्च में सभी कारोबारियों को मिलाकर कुल आर्डर 15-20 हजार प्रतिदिन का था। यहां मुख्यतः छह कारोबारी हैं। अभी सबके पास अच्छे ऑर्डर हैं। कुल मिलाकर यहां से हर दिन 40-50 हजार पीस की सप्लाई की जा रही है।

द्वारिका प्रसाद आगे कहते हैं – इन दिनों गमछे-चादर का करोबार पूरी तरह से मंदा हो गया है। इसके ऑर्डर ही नहीं हैं। ऑर्डर हैं तो सिर्फ और सिर्फ कफन के। यही वजह है कि इन दिनों 24 घंटे काम करना पड़ रहा है। तब जाकर समय पर ऑर्डर की भरपाई हो पा रही है।बहुत ज्यादा ऑर्डर की वजह से कर्मचारियों को 24 घंटे काम करना पड़ रहा है।

इतनी डिमांड 45 साल की जिंदगी में नहीं देखी
बातचीत के दौरान द्वारिका प्रसाद कुछ पल के लिए अचानक से दुखी भी नजर आते लगते हैं। रुआंसे अंदाज में बोल पड़ते हैं कि भाई, कोरोना ने तो हजारों-हजार की संख्या में घरों को उजाड़ दिया। अगर ऐसा नहीं है तो इतने ऑर्डर नहीं आते। इतनी डिमांड अपने 45 साल की जिंदगी में कभी नहीं देखी।

हाथ वाले कामगार भी हर रोज 3-5 हजार कफन बना रहे
इसी इलाके में हाथ मशीन पर काम करने वाले सुरेश तांती का कहना है कि बीते 25 दिनों से कफन की मांग बढ़ गई है। हर दिन तीन से पांच हजार पीस कफन तैयार किया जा रहा है। पूरा परिवार लगा हुआ है। यह समस्या फरवरी-मार्च में नहीं थी। उन दिनों एक-दो हजार पीस के ही आर्डर हुआ करते थे।

इसी काम में लगे डोलेसर पटवा कहते हैं- अप्रैल की बात ही अलग थी। ऑर्डर की संख्या देख कुछ क्षण के लिए मन दुखी हो जाता है। पर क्या करें, यही रोजी-रोटी है तो पेट पालने और बच्चों के लिए काम करना ही पड़ेगा। बीते 20 दिनों से हर दिन 4-5 हजार पीस के ऑर्डर कई जिलों के थोक विक्रेताओं से आ रहे हैं।

अब थोड़ा कफन के बारे में भी जान लीजिए
यहां से माल बिहार के सभी प्रमुख शहरों में जाता है। पटना कफन की मुख्य मंडी है। कफन में एक चौका-मतलब चार पीस। छोटा हो या बड़ा, सभी कफन पर कुछ न कुछ प्रिंटिंग रहती है। उसे रामनामा कहते हैं। सादे कफन भी होते हैं, जो पीले रंग के होते हैं। उस पर प्रिटिेंग नहीं होती।

कफन के कपड़े अलग-अलग होते हैं। सूती, टेरीकॉटन और सिल्क। रामनामा तीन साइज में, 25-35-45 रुपये की दर से होलसेलर को दिया जाता है। उसी तरह से सामान्य क्वालिटी वाले कफन 6 रुपए से लेकर 15 रुपए की दर से थोक विक्रेताओं को दिया जाता है।

Patrika Look

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